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Poetry

कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



पीछे रहना भी चाहता था

तुम्हारे साथ चलते रहने के लिए!!!



रुकना भी चाहता था

तुम्हें साथ चलते देखने के लिए !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



गिरना भी चाहता था

कि तुम संभाल सको !!!



रातों को तुम्हारी यादों में

जागना भी चाहता था !!!



तुम्हारे काबिल बनने के लिए

इस जमाने से लड़ना भी चाहता था !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!
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कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



पीछे रहना भी चाहता था

तुम्हारे साथ चलते रहने के लिए!!!



रुकना भी चाहता था

तुम्हें साथ चलते देखने के लिए !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



गिरना भी चाहता था

कि तुम संभाल सको !!!



रातों को तुम्हारी यादों में

जागना भी चाहता था !!!



तुम्हारे काबिल बनने के लिए

इस जमाने से लड़ना भी चाहता था !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!8570687487fc3b29c07e1ead9611b420.jpg
 
कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



पीछे रहना भी चाहता था

तुम्हारे साथ चलते रहने के लिए!!!



रुकना भी चाहता था

तुम्हें साथ चलते देखने के लिए !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!



गिरना भी चाहता था

कि तुम संभाल सको !!!



रातों को तुम्हारी यादों में

जागना भी चाहता था !!!



तुम्हारे काबिल बनने के लिए

इस जमाने से लड़ना भी चाहता था !!!



कुछ खोना भी चाहता था

कुछ पाने के लिए !!!
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वह तोड़ती पत्थर;

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर—

वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बँधा यौवन,

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार :—

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू,

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गईं,

प्राय: हुई दुपहर :—

वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा—

‘मैं तोड़ती पत्थर।’
वह तोड़ती पत्थर। सजा सहज सितार, सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार। "मैं तोड़ती पत्थर
 


मैं उस दिन
नदी के किनारे पर गया
तो क्या जाने
पानी को क्या सूझी
पानी ने मुझे
बूँद-बूँद पी लिया
और मैं
पिया जाकर पानी से
उसकी तरंगों में
नाचता रहा
रात-भर
लहरों के साथ-साथ
बाँचता रहा!
पानी की एक बूँद, जिन्दा रखती है, हम सबकी उम्मीद को...
 
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