मैं जैसी हूँ, क्या वैसे मुझे अपनाओगे तुम ....
दर्पण देखना पसंद नहीं मुझे, क्या आँखों को अपने आईना मेरा बनाओगे तुम?
बालों में कंघी करना अक्सर भूल जाती हूँ, क्या उलझी ज़ुल्फ़ों को मेरे सुलझाओगे तुम?
सजना सँवरना आता नहीं मुझे, क्या सादगी को मेरे समझ पाओगे तुम?
प्रेम को समझना चाहती हूँ, क्या दिल में अपने मुझे बसाओगे तुम?
होंठों से नहीं कह पाती मैं ज़ज्बात, क्या कोई कविता मेरी बन पाओगे तुम?
दर्पण देखना पसंद नहीं मुझे, क्या आँखों को अपने आईना मेरा बनाओगे तुम?
बालों में कंघी करना अक्सर भूल जाती हूँ, क्या उलझी ज़ुल्फ़ों को मेरे सुलझाओगे तुम?
सजना सँवरना आता नहीं मुझे, क्या सादगी को मेरे समझ पाओगे तुम?
प्रेम को समझना चाहती हूँ, क्या दिल में अपने मुझे बसाओगे तुम?
होंठों से नहीं कह पाती मैं ज़ज्बात, क्या कोई कविता मेरी बन पाओगे तुम?