Siddhantrt
Epic Legend
कभी कभी मन अशांत सा रहता है, उलझा हुआ,
तब कोई बात अगर ग़ौर से भी सुनूँ तो भी समझ नही आती,
समझ नही आता की ख़ुद की चोट पे हँसू या रोऊ,
जी चाहता है तोड़ दूँ सड़क किनारे लगे हुए पोल के बल्ब,
और उठा के ढेला मार दूँ गली के कुत्तों को,
फटकार के भगा दूँ पड़ोस के बच्चों को जो गली में चीख़ते चिल्लाते खेल रहे हैं,
जी चाहता है उठा के पूरे ज़ोर दे मारूँ इस करम जले फ़ोन को दीवार से,
तोड़ दूँ सारी यारियाँ सारे रिश्ते,
हो जाऊँ तनहा....
कभी कभी उलझनों का सही कारण नही पता चल पाता
या कुछ ऐसा हो जाता है समझ ही नहीं आता कि तमाम उलझनों में सबसे उलझी हुई उलझन कौन सी है?
"बाप का क़र्ज़, माँ की बीमारी, बहन की शादी, खुद की पढ़ाई और उनका इश्क़!"
उलझने हमेशा फ़िल्मी नही होती,
इन सब के अलावा भी बहुत कुछ है,
जो कचोटता है अंदर तक,
घाव करता जाता है,
कुछ बातों का ज़िक्र करते ही गिनगिना जाता है जियरा,
तो कुछ बातें टीस के सिवा कुछ नही देती....
कभी कभी जी चाहता है
कि किसी ट्रेन पे चढ़ के निकल जाऊँ
किसी अनजान सफ़र पे
और भटक जाऊँ ख़ुद में कहीं,
तलाश ख़ुद की है या कोई और है मंज़िल,
ये समझना भी एक उलझन ही है,
कभी कभी जी चाहता है कूद जाऊँ समुद्र में
और तैरना भूल जाऊँ,
कूद जाऊँ किसी पहाड़ की चोटी से और उड़ने की भी इच्छा न हो,
गटक जाऊँ कोई ज़हर एक घुट में और करूँ मौत का इंतज़ार लापरवाही से,
काटूँ एक हाथ से दूसरे हाथ की नसें और लिख दूँ किसी अजनबी का नाम अपनी कलाइयों पे,
कभी दिल कहता है छिड़क के पेट्रोल अपने शरीर पर देखूँ ये आग कैसी झुलसाती है,
तो कभी इच्छा होती है रोक के साँस देखू के जान कैसे जाती है....
तरसना, तड़पना, बिलकना, मौत इन सभी चीज़ों से बुरा होता है घुटना,
घुट घुट के जीना,
घुट घुट के मरना,
घुट घुट के हँसना,
घुट घुट में मुस्कुराना,
घुटघुट के रोना
और घुट घुट के ख़ुद को तबाह करना,
कुछ दर्द न समझ आते हैं न समझाए जाते हैं,
कुछ ग़लतियाँ ताउम्र का अफ़सोस देती हैं,
मुक़दमा चलता है ख़ुद का ख़ुद पर
और दोषी भी ख़ुद ही होता है इंसान
और जब सज़ा भी ख़ुद को ही देनी हो
तो ताउम्र घुटना ही होता है, ताउम्र!
कभी कभी जी चाहता है चीख़ूँ चिल्लाऊँ ज़ोर ज़ोर से
और एकांत में किसी पेड़ के नीचे बैठकर
घुटनों पे सर रख कर आँसू बहाऊँ
और जब आँसू पोछने वाला कोई न मिले
तो भभक कर रोते हुए
ख़ुद के आँसू पोंछता हुआ चलूँ
और रास्ते भर बुदबुदाऊँ खुद से कि "भाड़ में जाओ!"
तब कोई बात अगर ग़ौर से भी सुनूँ तो भी समझ नही आती,
समझ नही आता की ख़ुद की चोट पे हँसू या रोऊ,
जी चाहता है तोड़ दूँ सड़क किनारे लगे हुए पोल के बल्ब,
और उठा के ढेला मार दूँ गली के कुत्तों को,
फटकार के भगा दूँ पड़ोस के बच्चों को जो गली में चीख़ते चिल्लाते खेल रहे हैं,
जी चाहता है उठा के पूरे ज़ोर दे मारूँ इस करम जले फ़ोन को दीवार से,
तोड़ दूँ सारी यारियाँ सारे रिश्ते,
हो जाऊँ तनहा....
कभी कभी उलझनों का सही कारण नही पता चल पाता
या कुछ ऐसा हो जाता है समझ ही नहीं आता कि तमाम उलझनों में सबसे उलझी हुई उलझन कौन सी है?
"बाप का क़र्ज़, माँ की बीमारी, बहन की शादी, खुद की पढ़ाई और उनका इश्क़!"
उलझने हमेशा फ़िल्मी नही होती,
इन सब के अलावा भी बहुत कुछ है,
जो कचोटता है अंदर तक,
घाव करता जाता है,
कुछ बातों का ज़िक्र करते ही गिनगिना जाता है जियरा,
तो कुछ बातें टीस के सिवा कुछ नही देती....
कभी कभी जी चाहता है
कि किसी ट्रेन पे चढ़ के निकल जाऊँ
किसी अनजान सफ़र पे
और भटक जाऊँ ख़ुद में कहीं,
तलाश ख़ुद की है या कोई और है मंज़िल,
ये समझना भी एक उलझन ही है,
कभी कभी जी चाहता है कूद जाऊँ समुद्र में
और तैरना भूल जाऊँ,
कूद जाऊँ किसी पहाड़ की चोटी से और उड़ने की भी इच्छा न हो,
गटक जाऊँ कोई ज़हर एक घुट में और करूँ मौत का इंतज़ार लापरवाही से,
काटूँ एक हाथ से दूसरे हाथ की नसें और लिख दूँ किसी अजनबी का नाम अपनी कलाइयों पे,
कभी दिल कहता है छिड़क के पेट्रोल अपने शरीर पर देखूँ ये आग कैसी झुलसाती है,
तो कभी इच्छा होती है रोक के साँस देखू के जान कैसे जाती है....
तरसना, तड़पना, बिलकना, मौत इन सभी चीज़ों से बुरा होता है घुटना,
घुट घुट के जीना,
घुट घुट के मरना,
घुट घुट के हँसना,
घुट घुट में मुस्कुराना,
घुटघुट के रोना
और घुट घुट के ख़ुद को तबाह करना,
कुछ दर्द न समझ आते हैं न समझाए जाते हैं,
कुछ ग़लतियाँ ताउम्र का अफ़सोस देती हैं,
मुक़दमा चलता है ख़ुद का ख़ुद पर
और दोषी भी ख़ुद ही होता है इंसान
और जब सज़ा भी ख़ुद को ही देनी हो
तो ताउम्र घुटना ही होता है, ताउम्र!
कभी कभी जी चाहता है चीख़ूँ चिल्लाऊँ ज़ोर ज़ोर से
और एकांत में किसी पेड़ के नीचे बैठकर
घुटनों पे सर रख कर आँसू बहाऊँ
और जब आँसू पोछने वाला कोई न मिले
तो भभक कर रोते हुए
ख़ुद के आँसू पोंछता हुआ चलूँ
और रास्ते भर बुदबुदाऊँ खुद से कि "भाड़ में जाओ!"