Anchal23
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चरण चूम कर दादा के,वह विजयी स्वर में बोला।
काँप उठी सागर की लहरें, सिंहों का गर्जन डोला।
चक्रव्यूह में रण करने की, अभिमन्यु ने ठानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
नहीं पता था अंतिम बाधा, कैसे तोड़ी जाएगी।
हार की प्रतिध्वनि विजयी ध्वनि में,कैसे मोड़ी जाएगी।
धर्मराज चिंतित थे, अभिमन्यु अभी बालक है।
बाल हाथ करता है, हठ वश भूला मानक है।
कैसे रण में भेजें, तुमको युद्ध भूमि का भान नहीं है।
युद्धों की सीमा मर्यादा का, जरा सा तुमको ज्ञान नहीं है।
रण भूमि की छल मर्यादा, उनकी जानी पहचानी थी।
ज्ञान चक्रव्यूह तोड़ने का, केवल अर्जुन को आता है।
बिन अर्जुन के रण में कोई, इसीलिए न जाता है।
नहीं गए यदि युद्गभूमि में, तो अपयश ही पाएंगे।
उस अपयश से तो हम, जीते जी मर जायेंगे।
धर्म रक्षा को युद्धभूमि में, यौद्धा लड़ने जाता है।
वीरगति पाकर वह वीर, स्वर्ग लोक को पाता है।
वीरगति पाकर रण में, होनी धन्य जवानी थी।
अंतिम द्वार का चिंतन करके, उसका साहस डोला था।
उसको तो मैं गदा से तोड़ू, भीमसेन गरज कर बोला था।
गुरु द्रोण के चरणों में, उसने तीर चलाया था।
चरण वंदना करके उनकी, अपना शीश नवाया था।
वीर अभिमन्यु अर्जुन पुत्र , तब था उनको बहन हुआ।
पाण्डु वंश के गुरु प्रेम पर, फिर था उन्हें अभिमान हुआ।
कुछ वर्षो का छोटा बालक, उसकी सूरत लगी सुहानी थी।
प्रथम द्वार जयद्रथ खड़े थे, उनको था लाचार किया।
चंद पलों में अभिमन्यु ने ,पहले द्वार को पार किया।
प्रथम प्रवेश किया उसने, और नयन घुमाकर देखा था।
बाहर सभी पाण्डु वीरों को, जयद्रथ ने रोका था।
अब अभिमन्यु अकेला था, सामने शत्रु का मेला था।
प्राण हथेली पर ऱखकर, सिंहों से तब वह खेल था।
वह सिंह का छोटा शावक, सम्मुख सिंहों की मर्दानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
कैसे डर जाता सिंहों से, वह भी सिंह का शावक था।
सिंहों की भाँति गरजता था, शत्रु सेना को पीड़ादायक था।
अब उसने कौरव सेना का, खण्डन करना शुरू किया।
पाण्डु वंश की वीर कथा का, महिमा मंडन करना शुरू किया।
चाप चढ़ाकर धनुवा पर, रण की हुँकार लगाई थी।
शत्रु की कौरव सेना में, तब बाढ़ रक्त की आई थी।
रक्त की बहती गंगा में, शत्रु की नाव डुबानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
रक्त की नदिया बहती थी, सेना कट कट मरती थी।
उसके पौरुष के सम्मुख, किसी की कुछ न चलती थी।
युद्धभूमि में कँही किसी को, कुछ नही सुनाई पड़ता था।
त्राहि माम् का शोर मचा था, सवर्त्र अभिमन्यु दिखाई पड़ता था।
एक एक करके उसने, छह द्वार को तोड़ दिया।
हर द्वार पर उसने, एक महारथी को पीछे छोड़ दिया।
शत्रु को पीछे करने की, रण की रीति पुरानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
नाको चने चबवाकर सबको, सातवें द्वार पर जा पँहुचा।
अंतिम द्वार तोड़ने का वह , शुअवसर भी आ पहुंचा।
द्वार आख़िरी तोड़कर , विजयी पताका फहरा देता।
अभिमान तोड़कर कौरव सेना का, अपने सम्मुख शीश झुका देता।
कुछ छङ पश्चात तब ,पांडवो की होनी हार नही थी।
लेकिन स्वयं भगवान कृष्ण को, ये विजय स्वीकार नहीं थी।
चक्रव्यूह के काल चक्र में, होनी अभिमन्यु कुर्बानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
स्यवं रची थी उन्होंने होनी, खंडित युद्ध मर्यादा हो।
खंडित करने वाले यौद्धा भी, ज्यादा से ज्यादा हो।
युद्ध नियम खंडित हो, उसका भी कोई कारण था।
छल से नियमो के खंडन में, अभिमन्यु मरा अकारण था।
द्वार टूटता देखकर अंतिम, दुर्योधन का साहस डोला था।
माँ धरती की गोद में, वह आँख मूंदकर सो गया।
अम्बर का तेजस्वी तारा, धूमकेतु सा खो गया।
लेकिन कोई तारे का तेज, फीका नहीं कर सकता है।
वीरगति पाकर अमर हुआ हो, कभी नहीं मर सकता है।
पुत्र सुभद्रा कुरुक्षेत्र में, जिसकी अमर कहानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या,तब सोलह साल जवानी थी।
काँप उठी सागर की लहरें, सिंहों का गर्जन डोला।
चक्रव्यूह में रण करने की, अभिमन्यु ने ठानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
नहीं पता था अंतिम बाधा, कैसे तोड़ी जाएगी।
हार की प्रतिध्वनि विजयी ध्वनि में,कैसे मोड़ी जाएगी।
धर्मराज चिंतित थे, अभिमन्यु अभी बालक है।
बाल हाथ करता है, हठ वश भूला मानक है।
कैसे रण में भेजें, तुमको युद्ध भूमि का भान नहीं है।
युद्धों की सीमा मर्यादा का, जरा सा तुमको ज्ञान नहीं है।
रण भूमि की छल मर्यादा, उनकी जानी पहचानी थी।
ज्ञान चक्रव्यूह तोड़ने का, केवल अर्जुन को आता है।
बिन अर्जुन के रण में कोई, इसीलिए न जाता है।
नहीं गए यदि युद्गभूमि में, तो अपयश ही पाएंगे।
उस अपयश से तो हम, जीते जी मर जायेंगे।
धर्म रक्षा को युद्धभूमि में, यौद्धा लड़ने जाता है।
वीरगति पाकर वह वीर, स्वर्ग लोक को पाता है।
वीरगति पाकर रण में, होनी धन्य जवानी थी।
अंतिम द्वार का चिंतन करके, उसका साहस डोला था।
उसको तो मैं गदा से तोड़ू, भीमसेन गरज कर बोला था।
गुरु द्रोण के चरणों में, उसने तीर चलाया था।
चरण वंदना करके उनकी, अपना शीश नवाया था।
वीर अभिमन्यु अर्जुन पुत्र , तब था उनको बहन हुआ।
पाण्डु वंश के गुरु प्रेम पर, फिर था उन्हें अभिमान हुआ।
कुछ वर्षो का छोटा बालक, उसकी सूरत लगी सुहानी थी।
प्रथम द्वार जयद्रथ खड़े थे, उनको था लाचार किया।
चंद पलों में अभिमन्यु ने ,पहले द्वार को पार किया।
प्रथम प्रवेश किया उसने, और नयन घुमाकर देखा था।
बाहर सभी पाण्डु वीरों को, जयद्रथ ने रोका था।
अब अभिमन्यु अकेला था, सामने शत्रु का मेला था।
प्राण हथेली पर ऱखकर, सिंहों से तब वह खेल था।
वह सिंह का छोटा शावक, सम्मुख सिंहों की मर्दानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
कैसे डर जाता सिंहों से, वह भी सिंह का शावक था।
सिंहों की भाँति गरजता था, शत्रु सेना को पीड़ादायक था।
अब उसने कौरव सेना का, खण्डन करना शुरू किया।
पाण्डु वंश की वीर कथा का, महिमा मंडन करना शुरू किया।
चाप चढ़ाकर धनुवा पर, रण की हुँकार लगाई थी।
शत्रु की कौरव सेना में, तब बाढ़ रक्त की आई थी।
रक्त की बहती गंगा में, शत्रु की नाव डुबानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
रक्त की नदिया बहती थी, सेना कट कट मरती थी।
उसके पौरुष के सम्मुख, किसी की कुछ न चलती थी।
युद्धभूमि में कँही किसी को, कुछ नही सुनाई पड़ता था।
त्राहि माम् का शोर मचा था, सवर्त्र अभिमन्यु दिखाई पड़ता था।
एक एक करके उसने, छह द्वार को तोड़ दिया।
हर द्वार पर उसने, एक महारथी को पीछे छोड़ दिया।
शत्रु को पीछे करने की, रण की रीति पुरानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
नाको चने चबवाकर सबको, सातवें द्वार पर जा पँहुचा।
अंतिम द्वार तोड़ने का वह , शुअवसर भी आ पहुंचा।
द्वार आख़िरी तोड़कर , विजयी पताका फहरा देता।
अभिमान तोड़कर कौरव सेना का, अपने सम्मुख शीश झुका देता।
कुछ छङ पश्चात तब ,पांडवो की होनी हार नही थी।
लेकिन स्वयं भगवान कृष्ण को, ये विजय स्वीकार नहीं थी।
चक्रव्यूह के काल चक्र में, होनी अभिमन्यु कुर्बानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या, अब सोलह साल जवानी थी।
स्यवं रची थी उन्होंने होनी, खंडित युद्ध मर्यादा हो।
खंडित करने वाले यौद्धा भी, ज्यादा से ज्यादा हो।
युद्ध नियम खंडित हो, उसका भी कोई कारण था।
छल से नियमो के खंडन में, अभिमन्यु मरा अकारण था।
द्वार टूटता देखकर अंतिम, दुर्योधन का साहस डोला था।
माँ धरती की गोद में, वह आँख मूंदकर सो गया।
अम्बर का तेजस्वी तारा, धूमकेतु सा खो गया।
लेकिन कोई तारे का तेज, फीका नहीं कर सकता है।
वीरगति पाकर अमर हुआ हो, कभी नहीं मर सकता है।
पुत्र सुभद्रा कुरुक्षेत्र में, जिसकी अमर कहानी थी।
नौ माह में सीखी विद्या,तब सोलह साल जवानी थी।