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सत्य और सही का अंतर

JalJala

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सत्य न सही, न गलत,
वह बस वही है, जो तुम देख रहे हो, जैसा है।
न इसमें कोई भ्रम है, न किसी का विचार,
वह बस वैसा ही है, बिना किसी सोच के संसार।


सही, एक विचार का रंग है,
समय के साथ बदलता, कभी धूप, कभी बादल,
वास्तव में, यह एक क्षणिक प्रतिबिंब है,
जो हमेशा सोच से जूझता है, हकीकत से डरता है।

सत्य न बदलता है, न दिखाई देता,
वह आकाश की तरह अनंत, रूपहीन, बस साक्षी है।
सही के रंग कभी समझ से, कभी भ्रम से,
वह अपने सांचे में दुनिया को ढालता है।

वह बस वैसा ही है, बिना किसी रूप के, बस सत्य है,
न किसी का विचार, न किसी का प्रकृति।
सही, एक अनुभव है, जो हर पल बदलता,
वास्तव को अपने विचारों के रूप में सजाता है।
 
सत्य न सही, न गलत,
वह बस वही है, जो तुम देख रहे हो, जैसा है।
न इसमें कोई भ्रम है, न किसी का विचार,
वह बस वैसा ही है, बिना किसी सोच के संसार।


सही, एक विचार का रंग है,
समय के साथ बदलता, कभी धूप, कभी बादल,
वास्तव में, यह एक क्षणिक प्रतिबिंब है,
जो हमेशा सोच से जूझता है, हकीकत से डरता है।

सत्य न बदलता है, न दिखाई देता,
वह आकाश की तरह अनंत, रूपहीन, बस साक्षी है।
सही के रंग कभी समझ से, कभी भ्रम से,
वह अपने सांचे में दुनिया को ढालता है।


वह बस वैसा ही है, बिना किसी रूप के, बस सत्य है,
न किसी का विचार, न किसी का प्रकृति।
सही, एक अनुभव है, जो हर पल बदलता,
वास्तव को अपने विचारों के रूप में सजाता है।
सत्य शाश्वत है,
और सही उसका एक रूप।
 
सत्य न सही, न गलत,
वह बस वही है, जो तुम देख रहे हो, जैसा है।
न इसमें कोई भ्रम है, न किसी का विचार,
वह बस वैसा ही है, बिना किसी सोच के संसार।


सही, एक विचार का रंग है,
समय के साथ बदलता, कभी धूप, कभी बादल,
वास्तव में, यह एक क्षणिक प्रतिबिंब है,
जो हमेशा सोच से जूझता है, हकीकत से डरता है।

सत्य न बदलता है, न दिखाई देता,
वह आकाश की तरह अनंत, रूपहीन, बस साक्षी है।
सही के रंग कभी समझ से, कभी भ्रम से,
वह अपने सांचे में दुनिया को ढालता है।


वह बस वैसा ही है, बिना किसी रूप के, बस सत्य है,
न किसी का विचार, न किसी का प्रकृति।
सही, एक अनुभव है, जो हर पल बदलता,
वास्तव को अपने विचारों के रूप में सजाता है।
मैं तो दोनोंको एक जैसे देखती हूँ,
सत्य और सच mere लिए दो eye है दीखता तो दोनो एक ही है पर है तो दो
 
मैं तो दोनोंको एक जैसे देखती हूँ,
सत्य और सच mere लिए दो eye है दीखता तो दोनो एक ही है पर है तो दो
शुक्रिया, आपके विचारों के लिए। परंतु हम विचारों को सत्य नहीं मानते, बल्कि उन्हें वास्तविक मानते हैं, और हम इन्हें विभिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं। जैसा आपने कहा, सत्य और सच एक जैसे दिख सकते हैं, लेकिन उनके बीच गहरा अंतर है।

सत्य वह है जिसे हम केवल देख सकते हैं, पर वर्णन नहीं कर सकते। जैसे ही हम उसे वर्णित करने का प्रयास करते हैं, वह सत्य नहीं रहता, बल्कि वास्तविकता बन जाता है। वह रूप धारण कर लेता है, और रूप से वास्तविकता का जन्म होता है। फिर वास्तविकता से सही और गलत के विचारों का संघर्ष शुरू होता है। जिस वस्तु का रूप होता है, वह सत्य नहीं, बल्कि वास्तविकता मानी जाती है। सत्य अजर और अपरिवर्तनीय है, और इसे किसी भी शब्द या विचार से व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह साक्षी की तरह है, जो बस मौजूद है, और उसकी कोई विशेषता नहीं होती।

सच हमारे अनुभवों और विचारों का परिणाम है, जिसे हम शब्दों में व्यक्त करते हैं। यह समय, परिस्थिति और दृष्टिकोण के अनुसार बदलता रहता है। अतः, जबकि दोनों एक ही वास्तविकता से जुड़े हो सकते हैं, मैं उन्हें अलग-अलग रूपों में देखती हूँ। सत्य स्थिर और निर्विवाद है, जबकि सच हमारे अनुभवों और विचारों पर आधारित है, जो समय के साथ बदलते रहते हैं।
 
Last edited:
सत्य न सही, न गलत,
वह बस वही है, जो तुम देख रहे हो, जैसा है।
न इसमें कोई भ्रम है, न किसी का विचार,
वह बस वैसा ही है, बिना किसी सोच के संसार।


सही, एक विचार का रंग है,
समय के साथ बदलता, कभी धूप, कभी बादल,
वास्तव में, यह एक क्षणिक प्रतिबिंब है,
जो हमेशा सोच से जूझता है, हकीकत से डरता है।

सत्य न बदलता है, न दिखाई देता,
वह आकाश की तरह अनंत, रूपहीन, बस साक्षी है।
सही के रंग कभी समझ से, कभी भ्रम से,
वह अपने सांचे में दुनिया को ढालता है।


वह बस वैसा ही है, बिना किसी रूप के, बस सत्य है,
न किसी का विचार, न किसी का प्रकृति।
सही, एक अनुभव है, जो हर पल बदलता,
वास्तव को अपने विचारों के रूप में सजाता है।
उच्च विचार
 
मैं तो दोनोंको एक जैसे देखती हूँ,
सत्य और सच mere लिए दो eye है दीखता तो दोनो एक ही है पर है तो दो
क्या आपने ध्यान दिया कि आप एक बात कह रही हैं और दूसरी लिख रही हैं? यह रही आपकी अभिव्यक्ति: 'मैं तो दोनों को एक जैसे देखती हूँ, सत्य और सच मेरे लिए दो आँखें हैं, दीखता तो दोनों एक जैसे हैं, परंतु हैं तो दो।' इस वाक्य में आप कह रही हैं कि आप देख रही हैं, तो फिर तुलना कैसे कर सकती हैं? तुलना तो एक सोचने की प्रक्रिया है। क्या आप यह नहीं समझ रही हैं कि आप देख नहीं रही हैं, बल्कि सोचकर तुलना कर रही हैं? देखना और तुलना करना दो अलग-अलग क्रियाएँ हैं। अगर आप सच में देख रही होतीं, तो तुलना करने की आवश्यकता न होती। यह एक मानसिक प्रक्रिया है!

मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम तुलना करते हैं, तो हम देख नहीं पाते, हम केवल सोचते रहते हैं क्योंकि हमारी सोच हमारे अनुभवों से उत्पन्न होती है, जो सीमित और व्यक्तिगत होते हैं। और जब हम सच्चे रूप में देखते हैं, तो तुलना करने की कोई आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि तब हम अनुभवी नहीं होते हैं, बल्कि साक्षी होते हैं। अगर अनुभव व्यक्तिगत है, तो साक्षी सार्वभौमिक होता है। सत्य देखने से प्रकट होता है, और सही तुलना करने से प्राप्त होता है। इस दृष्टिकोण से, दोनों एक नहीं, बल्कि भिन्न हैं।

शुक्रिया पढ़ने के लिए, मुझे उम्मीद है कि अब आप मेरे दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से देख पा रहे हैं।
 
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सत्य न सही, न गलत,
वह बस वही है, जो तुम देख रहे हो, जैसा है।
न इसमें कोई भ्रम है, न किसी का विचार,
वह बस वैसा ही है, बिना किसी सोच के संसार।


सही, एक विचार का रंग है,
समय के साथ बदलता, कभी धूप, कभी बादल,
वास्तव में, यह एक क्षणिक प्रतिबिंब है,
जो हमेशा सोच से जूझता है, हकीकत से डरता है।

सत्य न बदलता है, न दिखाई देता,
वह आकाश की तरह अनंत, रूपहीन, बस साक्षी है।
सही के रंग कभी समझ से, कभी भ्रम से,
वह अपने सांचे में दुनिया को ढालता है।


वह बस वैसा ही है, बिना किसी रूप के, बस सत्य है,
न किसी का विचार, न किसी का प्रकृति।
सही, एक अनुभव है, जो हर पल बदलता,
वास्तव को अपने विचारों के रूप में सजाता है।
यहां आपने जो दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, वह अद्वैत वेदांत या ज़ेन-बौद्ध परंपरा की तरह गहराई से सत्य के स्थायित्व और सही की परिवर्तनशीलता की ओर इशारा करता है।
 
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