बहते दरिया सी अपनी अल्हड़जिन्दगानी थी ।
मैं बस मुझमें था और मौजों की
रवानी थी ।
उन यारों संग नापी थी शहर की
कुछ गलियां ।
काटों को तोड़ा था और छेड़ी थी
कुछ कलियां ।
बेफिक्री थी बातों में और धुंए में
उड़ती जवानी थी ।
मैं बस मुझमें था और मौजों की
रवानी थी ।
सपनों की दुनिया सजाकर पंछी
सा उड़ता था ।
कुछ करने का सपना आंखो में
लेकर चलता था ।
मस्ती के जंगल में बन्दिश-सीमा
बस बेमानी थी ।
मैं बस मुझमें था और मौजों की
रवानी थी ।
पागल, आवारा और जिद्दी की
संधियाँ अब हमपे थीं ।
बेपरवाही हावी थी, बेशर्मी की
पंक्तियां सब हमसे थीं ।
कुछ खोते, कुछ पाते रोज की
यही कहानी थी ।
मैं बस मुझमे था और मौजों की
रवानी थी ।
पार्थ से यारो संग सारथी सा खुद
हो जाता था ।
बिन गान्डिव के भी हर संघर्ष में
खो जाता था ।
मुझमें घुलकर मेरी रूह मुझसे ही
अन्जानी थी ।
बहते दरिया सी अपनी अल्हड़
जिन्दगानी थी ।
मैं बस मुझमें था और मौजों की
रवानी थी ।।