अबला हूं सबला हूं
चाहे जो कहो पर मैं स्त्री हूं
पूर्ण हूं अपूर्ण हूं
आदि भी तो अनादि भी
सम्पूर्ण सृष्टि भी मैं ही हूं
कभी मिश्री की डली सी मीठी
कभी हरी लाल मिर्च सी तीखी
कभी नदी बन पाप धोती हूं
कभी झील के पानी सी ठहरी रहती हूं
कभी समुद्र सी बहती सबको
अपनी आगोश में समाहित करती हूं
कभी हिम की तरह ठोस तो
कभी मोम सी पिघलती रहती हूं
जब तप जाऊं तो सुखी बंजर भी हूं मैं
कभी बेमौसम बारिश सी बरसाती भी मैं
बल मुझमें इतना के बन धरा
सबका भार सहती हूं मैं
शक्ति इतनी के भोले भी अधूरे मेरे बिना
मासूम इतनी के सीता की तरह छली गई
क्रोध इतना के बन काली संहार करती मैं
अपनी कोख में एक और अंश को बोती मैं
पुरुष को पुरुषत्व भी देती मैं
बचपन का वो अनुराग भी मैं
सारा संसार मुझसे ही चलता है
फिर भी संसार में अपने ही
वजूद को ढूंढती भी मैं
कहीं शब्दो से लज्जित होती मैं
कहीं आंखो से निर्वस्त्र होती मैं
स्त्री हूं मैं जो स्त्री से ही दबाई गई
कभी वस्तु की तरह मोल भी लगाया
तो कभी भरी सभा मैं घसीटा भी गया
ताकत भी बनी तो कभी कमजोरी भी मैं
पूजी भी गई पर रही बस स्त्री ही मैं
(महिला दिवस पर विशेष)
चाहे जो कहो पर मैं स्त्री हूं
पूर्ण हूं अपूर्ण हूं
आदि भी तो अनादि भी
सम्पूर्ण सृष्टि भी मैं ही हूं
कभी मिश्री की डली सी मीठी
कभी हरी लाल मिर्च सी तीखी
कभी नदी बन पाप धोती हूं
कभी झील के पानी सी ठहरी रहती हूं
कभी समुद्र सी बहती सबको
अपनी आगोश में समाहित करती हूं
कभी हिम की तरह ठोस तो
कभी मोम सी पिघलती रहती हूं
जब तप जाऊं तो सुखी बंजर भी हूं मैं
कभी बेमौसम बारिश सी बरसाती भी मैं
बल मुझमें इतना के बन धरा
सबका भार सहती हूं मैं
शक्ति इतनी के भोले भी अधूरे मेरे बिना
मासूम इतनी के सीता की तरह छली गई
क्रोध इतना के बन काली संहार करती मैं
अपनी कोख में एक और अंश को बोती मैं
पुरुष को पुरुषत्व भी देती मैं
बचपन का वो अनुराग भी मैं
सारा संसार मुझसे ही चलता है
फिर भी संसार में अपने ही
वजूद को ढूंढती भी मैं
कहीं शब्दो से लज्जित होती मैं
कहीं आंखो से निर्वस्त्र होती मैं
स्त्री हूं मैं जो स्त्री से ही दबाई गई
कभी वस्तु की तरह मोल भी लगाया
तो कभी भरी सभा मैं घसीटा भी गया
ताकत भी बनी तो कभी कमजोरी भी मैं
पूजी भी गई पर रही बस स्त्री ही मैं
(महिला दिवस पर विशेष)
Last edited: