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प्रेम

Rockzz

खराब किस्मत का बादशाह (King of bad luck)
Senior's
Chat Pro User
प्रेम से बढ़कर ना कोई शास्त्र था,
ना है, ना रहेगा...

बस हम लोगों ने पढा ही गलत तरीके से है,
समझा भी गलत नियत से है...
और देखा भी ग़लत भावना से है...
इसलिए आज प्रेम को इतनी गलत नज़र से
देखा जाता है...

मेरे लिए भगवान के बाद इस दुनिया में
कोई पवित्र चीज़ है
तो वो हो तुम, वो है प्रेम...

मुझे कण_कण से तुम्हारी की खुश्बु आती है...
जिधर देखूं उधर जर्रे_जर्रे में प्रेम नजर आता है...

जब भी धड़कनें स्पंदन करती है
तुम कस्तुरी बन मन को महकाती हो...
ना कोई छल, ना कोई प्रपंच, ना कोई स्वार्थ
नि:स्वार्थ प्रेम करके देखो

रोम_रोम में निखार आता है...!!!
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प्रेम से बढ़कर ना कोई शास्त्र था,
ना है, ना रहेगा...

बस हम लोगों ने पढा ही गलत तरीके से है,
समझा भी गलत नियत से है...
और देखा भी ग़लत भावना से है...
इसलिए आज प्रेम को इतनी गलत नज़र से
देखा जाता है...

मेरे लिए भगवान के बाद इस दुनिया में
कोई पवित्र चीज़ है
तो वो हो तुम, वो है प्रेम...

मुझे कण_कण से तुम्हारी की खुश्बु आती है...
जिधर देखूं उधर जर्रे_जर्रे में प्रेम नजर आता है...

जब भी धड़कनें स्पंदन करती है
तुम कस्तुरी बन मन को महकाती हो...
ना कोई छल, ना कोई प्रपंच, ना कोई स्वार्थ
नि:स्वार्थ प्रेम करके देखो

रोम_रोम में निखार आता है...!!!
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वाह, Rockzz! तुम्हारे शब्दों में इतनी गहराई और पवित्रता है कि हर पंक्ति दिल में उतर जाती है। तुम्हारा लिखा हुआ प्रेम का यह दृष्टिकोण न केवल अनोखा है, बल्कि आत्मा को छूने वाला भी है।

"प्रेम से बढ़कर ना कोई शास्त्र था,
ना है, ना रहेगा..."
ये पंक्तियां प्रेम की अनंतता और उसकी दिव्यता को कितनी सटीकता से बयान करती हैं। तुमने प्रेम को केवल भावना तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे एक शास्त्र, एक मार्ग, और एक दर्शन बना दिया।

तुम्हारा यह कहना कि "हमने प्रेम को गलत नजर से देखा है," सच में समाज की सोच को चुनौती देता है। प्रेम, जो अपनी मूल भावना में निःस्वार्थ और शुद्ध है, उसे तुमने इतना सहज और साफ ढंग से व्यक्त किया है कि यह पाठक को खुद के भीतर झांकने पर मजबूर कर देता है।

"तुम कस्तूरी बन मन को महकाती हो…"
यह पंक्ति तो मानो कवि हृदय से निकली एक सजीव तस्वीर है। प्रेम को तुमने केवल एक भावना नहीं, बल्कि हर कण-कण में व्याप्त एक अस्तित्व बना दिया है।

तुम्हारी यह रचना पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे प्रेम को उसकी असली पहचान मिल गई हो। बस ऐसे ही लिखती रहो, क्योंकि तुम्हारे शब्द प्रेम और पवित्रता की खुशबू से सराबोर हैं।
 
प्रेम से बढ़कर ना कोई शास्त्र था,
ना है, ना रहेगा...

बस हम लोगों ने पढा ही गलत तरीके से है,
समझा भी गलत नियत से है...
और देखा भी ग़लत भावना से है...
इसलिए आज प्रेम को इतनी गलत नज़र से
देखा जाता है...

मेरे लिए भगवान के बाद इस दुनिया में
कोई पवित्र चीज़ है
तो वो हो तुम, वो है प्रेम...

मुझे कण_कण से तुम्हारी की खुश्बु आती है...
जिधर देखूं उधर जर्रे_जर्रे में प्रेम नजर आता है...

जब भी धड़कनें स्पंदन करती है
तुम कस्तुरी बन मन को महकाती हो...
ना कोई छल, ना कोई प्रपंच, ना कोई स्वार्थ
नि:स्वार्थ प्रेम करके देखो

रोम_रोम में निखार आता है...!!!
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प्रेम वही जो आत्मा को छू जाए,
जिसमें न कोई शर्त, न छल समा पाए।
जहां हर धड़कन में बस महक हो तेरी,
वही प्रेम पवित्र, वही प्रेम सच्चा है मेरी।
 
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