तुमसे मोहब्बत लाजवाब है सनमप्यार का अर्थ है, बिना शर्तों के एक-दूसरे की साक्षी बनना।
प्रेम कितना भी गहरा हो, एक न एक दिन शर्त भी आ ही जाते हैं।प्यार का अर्थ है, बिना शर्तों के एक-दूसरे की साक्षी बनना।
सही बात...प्यार वो साक्षी है, जो बिना किसी बंधन के, दिल की गहराइयों में बसता है।
पर हमेशा नहींप्यार वह साक्षी है, जो हमें अपनी स्वतंत्रता में संपूर्णता का अहसास कराता है।
प्रेम कभी बंधन को नहीं मानताप्रेम में, दिल को बंधन नहीं, बल्कि उड़ान मिलती है
काश कि ये सच आजीवन साथ रहता।प्यार एक ऐसा चश्मा है, जो हमें जीवन की सच्चाई दिखाता है, बंधनों से मुक्त करता है।
प्रेम कितना भी गहरा हो, एक न एक दिन शर्त भी आ ही जाते हैं।
सही बात...
फिर एक दिन आपको उन्हीं गहराइयों में धकेल देता है जहां से आपका आना कभी कभी संभव नहीं हो पाता और फिर रह जाते हैं अकेले, तनहा।
पर हमेशा नहीं
प्रेम कभी बंधन को नहीं मानता
रस्मों रिवाजों को नहीं जानता।
पर प्रेम में मिले उड़ान को भी कभी कभी बंधन के रूप में ले लेते हैं लोग।
प्रेम कभी बंधन को नहीं मानता
रस्मों रिवाजों को नहीं जानता।
पर प्रेम में मिले उड़ान को भी कभी कभी बंधन के रूप में ले लेते हैं लोग।
काश कि ये सच आजीवन साथ रहता।
वो बीते दौर की बातें हैं जहां बंधनों से मुक्ति मिलती थी, आज प्रेम से मुक्त किए जाते हैं अपार दुख और असंतुष्टि के साथ।
आपके प्रेम पर किए गए विचारों के लिए धन्यवाद। आपकी भावनाएँ गहरी हैं, लेकिन मैं प्रेम पर एक अलग दृष्टिकोण साझा करना चाहूंगा जो कुछ गलतफहमियों को स्पष्ट कर सके।प्रेम एक ऐसा भाव है कि साथ हो तो सब अच्छा दिखता है, ना हो तो और भी अच्छा दिखता है, किंतु प्रेम जो टूटे तो सिर्फ इंसान दिखता है।
(उसके भाव के साथ आत्मा भी मर जाती है।)
मित्र धन्यवाद इतनी गहराई से समझने के लिए।आपके प्रेम पर किए गए विचारों के लिए धन्यवाद। आपकी भावनाएँ गहरी हैं, लेकिन मैं प्रेम पर एक अलग दृष्टिकोण साझा करना चाहूंगा जो कुछ गलतफहमियों को स्पष्ट कर सके।
इच्छा बनाम प्रेम: आपने कहा कि प्रेम कभी-कभी शर्तों के साथ आता है, लेकिन मेरा मानना है कि प्रेम की कोई अंतर्निहित प्रकृति नहीं होती। हम प्रेम को "साक्षी" के रूप में देख सकते हैं, जो स्थिर और निरंतर है। इसके विपरीत, इच्छा एक व्यक्तिगत भावना है जिसमें सुख और दुख दोनों का अनुभव होता है, और यह परिवर्तनशील होती है। प्रेम बस वह साक्षी है जो न तो देता है और न ही लेता है, जबकि इच्छा अक्सर दोनों शामिल होती है।
प्रेम की शाश्वतता: प्रेम एक ऐसी अवस्था है जो व्यक्तिगत अनुभवों से परे है। यह एक ऐसा साक्षी है जहाँ समय का कोई अर्थ नहीं होता। जब हम प्रेम को इस तरीके से देखते हैं, तो हम इसकी अनंत शांति और स्थिरता का अनुभव करते हैं। प्रेम हमें किसी भी स्थिति में संजीवनी देता है; यह हमें संतोष प्रदान करता है और हमारे भीतर की गहराई को प्रकट करता है।
स्थिरता और समर्थन: जब हम प्रेम को एक सार्वभौम सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, तो हम इसकी अंतर्निहित स्थिरता और स्थायीपन को पहचानते हैं। जबकि इच्छा उतार-चढ़ाव में होती है, प्रेम लगातार हमें बिना किसी भेदभाव के समर्थन देता है। यह एक गहरी समझ और संबंध प्रदान करता है जो समय और परिस्थिति से परे होता है।
इस प्रकार, मैं प्रेम को एक साक्षी के रूप में देखता हूँ, न कि केवल एक अनुभव के रूप में, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ता है और इच्छा की जटिलताओं से मुक्त करता है।
मुझे आशा है कि यह दृष्टिकोण आपके साथ गहराई से जुड़ सकेगा और प्रेम की हमारी समझ को और बढ़ाएगा।
मित्र धन्यवाद इतनी गहराई से समझने के लिए।
और मेरे सामने प्रेम को रखने के लिए।
प्रेम के बारे में मेरे दृष्टिकोण भी आपके समान है।
प्रेम को किसी भी सुख दुख, पाने खोने से परे मानता हूं।
पर कभी कभी परिस्थितियां ऐसी आतीं हैं सामने की सच भी झूठ दिखने लगता है। खुद का सच जिसके सहारे हमेशा हमेशा खड़े रहते हैं धुंधला सा जाता है।
जानता हूं कि इससे सच तो नहीं बदल सकता और न ही प्रेम की प्रकृति को बदला जा सकता है।
परन्तु, भावनाएं आहत हो तो भ्रम भी आ जाते हैं।
और भावनाओं का क्या करें काबू अगर कर पाते इनपे तो सबसे परे हो जाते और सिर्फ सच और प्रेम में ही रहते, कोई भी किसी से भी फिर शिकायत ही नहीं होती।
मित्रमित्र, मैं समझता हूँ, इसलिए मैंने आपको समझाने की कोशिश की। वैसे, मित्र होना एक-दूसरे की उलझनों को दूर करने के लिए होता है; कभी आप मेरा और कभी मैं आपका। मित्र, यह "कभी-कभी" वाला शब्द बहुत ही भ्रमित करने वाला है, इसे ध्यान से समझना चाहिए। जहाँ प्रेम है, वहाँ "कभी-कभी" का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि प्रेम एक दार्शनिक होता है और हम दार्शनिक तब ही हो सकते हैं जब हमारे मन में कोई संकीर्णता न हो, जैसे "कभी-कभी"।
और मैं पुनः कह रहा हूँ कि "प्रेम" की कोई स्वभाव नहीं होती, जबकि इच्छा का एक स्वभाव होता है। प्रेम और सत्य इसलिये नहीं बदलते क्योंकि प्रेम और सत्य "साक्षी" हैं और ये कोई "अनुभव" नहीं हैं। वहीं, इच्छा की भावना होती है क्योंकि यह प्रकृति के नियंत्रण में होती है, जबकि प्रेम केवल एक साक्षी है जो भावना से परे है।
भावना को नियंत्रित नहीं किया जाता; उसे "जैसा है, वैसे ही देखा जाता है," क्योंकि भावना निरंतर बदलती रहती है। जो जैसा है, उसे वैसा देखना चाहिए। यदि आप "साक्षी" बनेंगे, तो भावना आपके ऊपर नियंत्रण नहीं कर सकेगी, किंतु यदि आप "अनुभवी" बनेंगे, तो भावना का आपके ऊपर नियंत्रण रहेगा, जिससे आपको सुख और दुख दोनों का अनुभव होगा।
अब प्रश्न यह है कि आपको क्या चाहिए? क्या आप "साक्षी" बनना चाहते हैं या "अनुभवी"? जैसे आप बनेंगे, वैसे ही आपके परिणाम प्राप्त होंगे। क्या आपको साक्षी बनाकर स्थिरता चाहिए, या फिर अनुभवी बनाकर "सुख और दुख"? चुनाव आपका है।