हमने विदा की बेटियाँ खुद अपने सीने बेचकर।
अब तो हमेशा खुश रहेगी उसके घर बेटी मेरी,
इक बाप ने उसको बियाहा है जमीने बेचकर।
आखिर बटाई की फसल में कुछ नहीं बचता कभी,
सूखी जमीनें हमने जोती बस पसीने बेचकर।
कैसे अदा करता ये भाई, राखियों का कर्ज था,
सिक्के शगुन के जोड़े थे उसने महीने बेचकर।
इस मुफलिसी के दौर में कैसे करु पूरी गजल,
सागर उठा लाया मैं सारे आबगीने बेचकर।
अब तो हमेशा खुश रहेगी उसके घर बेटी मेरी,
इक बाप ने उसको बियाहा है जमीने बेचकर।
आखिर बटाई की फसल में कुछ नहीं बचता कभी,
सूखी जमीनें हमने जोती बस पसीने बेचकर।
कैसे अदा करता ये भाई, राखियों का कर्ज था,
सिक्के शगुन के जोड़े थे उसने महीने बेचकर।
इस मुफलिसी के दौर में कैसे करु पूरी गजल,
सागर उठा लाया मैं सारे आबगीने बेचकर।